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Sunday, January 29, 2017

कुतुबुद्दीन ऐबक का अंत --- पोस्ट पार्ट -3

कुतुबुद्दीन ऐबक का अंत --- पोस्ट पार्ट -3
अन्हिलवाड़ शाशक के कुशल नेतृत्व में हिन्दू सेना फिर एकत्र हो गयी थी , फिर मुस्लिम शाशको को ललकारा गया इस बार भी जीवन लीला समाप्त होने को ही थी , की कमबख्त दिल्ली भाग खड़ा हुआ , उसने ताबड़तोड़ अपने मालिक मुहम्मद गोरी से सहायता की मांग की , गोरी का भोजन और आहार लूट ही था , कुतुबुद्दीन इसे हिंदुस्तान से इकट्ठा करके गजनी भेजता था , अतः उसने देखा की कुतुबुदीन की समाप्ति के बाद तो उसका अस्तित्व ही समाप्त हो जाएगा , लुटेरो का एक विशाल गिरोह उसने अन्हिलवाड़ भेज दिया , आबू पर्वत के निचे संकर्रे रास्ते पर राय कर्ण और अन्य राजपूत राजाओ के अधीन एक शशक्त हिन्दू सेना तैयार थी।
उस सशक्त स्तिथि में आक्रमण करने का साहस मुसलमान नहीं बटोर सके , विशेषकर उसी स्थान पर बार बार गोरी भी बहुत बार मार खा कर गया था , अतः मारे भय के वह पीछे ही डटे रहे , तब हिन्दू सेनाओ ने अपने पर्वतीय स्थानों को छोड़ दिया, और मुस्लिम सेना उनपर टूट पड़ी , खुले मैदानों में आमने सामने की लड़ाई हुई , हमेशा की तरह मुसलमानो ने विजय का दावा किया है , परंतु इस पंक्तियों को पढ़ने के बाद पता चलता है , की मुस्लिम सेना ने हारकर अजमेर में शरण ली , और फिर दिल्ली लौट गयी।
अशिक्षित दरबारों में चक्कर काटने वाले खुशामदी लेखक मोटी रकम लेकर हार को जीत लिखने के लिए तैयार ही बैठे थे , इसलिए हम हिन्दुओ और साधारण जनता को इनके झूठ के प्रति जागरूक हो जाना चाहिए , इन लोगो का वास्तविक निर्णय स्वम् ही निकाला जाना चाहिए।
१२०२ में एक दूसरे युद्ध में पालतू गुलाम अल्ततमश के साथ कुतुबुद्दीन ने कालिंजर दुर्ग घेर लिया , यह दुर्ग परमार राजाओ की राजधानी था , सदा की भाँती चापलूस मुस्लिम इतिहासकार दावा करते है की हिन्दू राजा पराजित हुआ, और भाग गया। और कर आदि देने की संधि होने के बाद राज्य राजा को लौटा दिया गया , किन्तु आगे वह यह भी जोड़ देता है की उसने स्वाभाविक म्रत्यु पायी , और शांति संधि की किसी भी शर्त को पूरा नहीं किया। इन तथ्यों से साफ़ पता चलता है , की कालिंजर से भी कुतुबुद्दीन हार कर ही लौटा। हालांकि हमेशा की भाँती अपनी हार की मार छिपाने के लिए पालतू मुस्लिम इतिहासकारो ने इस मुठभेड़ पर अपनी मुस्लिम जीत का रंग चढाने का पूरा प्रयास किया है।
दूसरी बार फिर बड़ी सेना लेकर इस दुर्ग पर आक्रमण हुआ , इस बार की स्थायी सेना में हजारो मुसलमानो का ही नहीं , वरन नए विदेशी मुस्लिम लुटेरो को भी भरा गया , मृत शाशक के मुख्यमंत्री अजदेव ने बड़ी वीरता से दुर्ग की रक्षा की।
बाद में दुर्ग आतंक , माया , और धोखे से कब्जे में हुआ , फिर सदा की भांति मंदिरो को मस्जिद बनाया गया , और बुतो ( देवी - प्रतिमाओ ) का नामोनिशान तक मिटा दिया , पचासहजार लोगो के गले में गुलामी का फंदा डाला गया , और हिन्दुओ के रक्त से सारी भूमि रंजित हो गयी इस तरह इस्लाम के नाम पर गुलामी के गीत गाये गए , और गुलामी के नाम पर इस्लाम की शोभा बढ़ाई गयी।
अब कुतुबुद्दीन महोबा से जा टकराया , मगर इतिहासकारो की चुप्पी से साबित होता है की वहां उन लुटेरो को काफी नुकसान का सामना करना पड़ा था , इसी प्रकार का एक प्रयास बंदायू पर भी किया गया , जो नगरो की जननी और हिन्द देश के प्रमुख नगरो में से एक था , इसलिए हिन्दुओ को बेवकूफी से भरा यह विचार दिमाग़ से एकदम निकाल देना चाहिए की इन नगरो का निर्माण मुसलमानो ने किया है , वरन इसके विपरीत मुसलमानो ने इसे नस्ट और बर्बाद ही किया है। बंदायू अभियान भी बड़ी बुरी तरीके से कुचला गया था।
इसी समय एक दूसरा मुस्लिम पिसाच कुतुबुद्दीन के गिरोह में आ मिला। वह एक शैतान लुटेरा और पालतू गुलाम था , बाद में इसी ने पूर्वी बिहार के साथ साथ नालंदा का भी नाश किया। इससे पहले इसकी हिन्दुओ की हत्या , नर-संघार , और लूट की शक्ति को नापा , और परखा गया , संतोषजनक पाने पर इसे मुहम्मद गोरी ने गुलाम गिरोह नेताओ के केबिनेट का सदश्य बना लुटेरे दल में शामिल कर दिया। ( बख्तियार खिलजी )
महोबा और बंदायू में हिन्दू तलवारो से हुए घावों को चाटता भीगी बिल्ली सा कुतुबुद्दीन दिल्ली वापस लोटा , १२०३ में भारत पर अपने घावों के क्रम को कायम रखते हुए , गजनी से चला , मार्ग में खिता की हिन्दू सेना ने इसे रोककर ललकारा , अनखुद की सीमा पर संग्राम छिड़ गया , परिणाम में गोरी को बुरी तरह कुचलकर हराया गया , वह भय से काँपता मैदान से भाग खड़ा हुआ , अपवाह तो यहाँ तक थी, की वह युद्ध में ही मारा गया , इस भगदड़ में उसने एक महत्वकांशी गुलाम ऐबक ने मौके को सुंघा , और एक टोली लेकर वह मुल्तान पहुँच गया , फिर गर्वनर के कानो में गुप्त सुचना देने के बहाने उसकी हत्या कर दी।
कुतुबुद्दीन और उसके स्वामी गौरी को कई बार भारत के वीर देशभक्त हिन्दुओ ने कई बार हराया था , अतः अब उसमे इतना साहस नहीं था , की सीधे हिन्दुओ से जा भिड़े , जब तक गोरी का सर कटकर नहीं गिरा, तब तक कुत्तूबुद्दीन गोरी का एक पालतू कुत्ता ही था ,
नवम्बर १२१० ईश्वी के प्रारंभिक दिनों में लाहौर में चौगान खेलते समय कुतुबुद्दीन घोड़े से गिर गया , घोड़े की जीन के पायदान का नुकीला भाग उसकी छाती में धंस गया , और मर गया , यह दारुन और दोगला मुस्लिम पशु एक पशु के हाथ से ही मारा गया

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