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Tuesday, January 17, 2017

Mahabharat bhag 4

महाभारत  #पुरोहितवाणी  दिवस ४

अमात्य देवव्रत को बताते है की उनके पिता महाराज शांतनु  किसी स्त्री के मोहपाश में फँस चुके है ---  अब आगे -

क्या बात है अमात्य।  "

युवराज।  अमात्य बोले , " यमुना के तट  पर दासदास नामक केवक-तट का स्थान है , उनकी पुत्री अत्यंत रूपवती है , चक्रवर्ती ने पुत्र को देखते ही उसके पिता के सम्मुख परिग्रहण का प्रस्ताव रखा था : किन्तु दासदास  की शर्त को सुन चुपचाप लौट आये।

ऐसी क्या शर्त है अमात्य

" ऐसे अवसरों पर एक ही शर्त होती है युवराज , " नयी रानी के पुत्र को राज्याधिकार और पहले पुत्र का अधिकारच्युत करना होगा।  इसीलिए मेने कहा था , यह आपके या मेरे बस में नहीं है युवराज।

देवव्रत समझ नहीं पा रहे थे की वह क्या कहे , " क्या मंत्री उनके सम्मुख यह प्रस्ताव रख रहे थे , जो अपने अधिकारों को लेकर वो उदासीन हो जाए , जो बात पिता अपने पुत्र से नहीं कह सके, वो एक मंत्री के हाथों कहलवा रहे है।  आशक्ति में विवेक स्थिर नहीं रहता , और इस समय तो पिता भी समझ रहे है , की यह मांग उचित नहीं है।  वे जानते है की यह उचित नहीं है , इसलिए देवव्रत को कुछ नहीं कह रहे।  पर उनकी इच्छा यह है की यह " अनुचित " की किसी तरह से संभव हो जाए , इसीलिए पहले खुद  पुत्र की इच्छा मेरे आगे रखते है , और मंत्री से  सारी  कथा अब सुनवा ही चुके है।

देवव्रत के मन में जैसे घ्रणा का उत्स फुट आया , यह है पिता का रूप ?? वात्सल्य मूर्तिजनक और पिता ?? कामशक्ति का वेग इतना मजबूत और प्रहारक है की पिता पुत्र से इस प्रकार झूठ बोलता है ? पिता यह नहीं कह सके पहली पत्नी से अलग होकर संयम का जो कामरहित जीवन उन्होंने बिताया , वह मात्र एक प्रतिक्रिया थी।  पुरुष की समस्त शक्ति नारी में है , जिस दिन वह उसे छोड़ कर चली जाती है , उस दिन उसे यह सारी  सृष्टि माया का प्रपंच लगती है , और जिस दिन फिर कोई दूसरी नारी उसके जीवन के सम्मुख आकर खड़ी  हो जाती है , सारी  सृष्टि फिर से मोहिनी का रूप धारण कर फिर से हंसने लगती है , पिता ने पिछली घटना से भी कुछ भी नहीं सीखा।  यह आकर्षण प्रेम नहीं , बल्कि अपने विवेक की हत्या , और मोहशक्ति का जाल है।  माँ ने आशक्ति के मूल्य से पिताजी को अपनी इच्छा का दास बनाया था , माँ के जाने के बाद पिताजी ने यह नहीं सोचा की उन्हें दासता से मुक्ति मिल गयी है, वे पुनः नयी स्वामिनी की खोज में लग गए।   अब उन्हें मिली है दासराज की पुत्री की दासता , जो अपने मूल्य के रूप में पिताजी से उनके अगली पीढ़ी की दासता मांग रही है।

लौटते हुए देवव्रत का मस्तक द्वन्दों के मारे झनझना पड़ा था , यह कैसा दुविधा में झोंक दिया आपने पिताजी मुझे।  देवव्रत भी जैसे एक देवव्रत ना होकर अनेक हो गए है।  एकमन कुछ ओ कहता है , और एक मन कुछ और ,  एक मन कहता है की पिता राज्य किसी और देना चाहते है , और विवाह करना चाहते है , तो मुझे क्या आपत्ति है ,  मुझे तो राज्य चाहिए भी नहीं , पर अधिकार की बात देवव्रत के मन में खटकती है।  प्रजा भी देवव्रत को ही चाहती है , यदि देवव्रत से कोई निजी वस्तु मांगी जाती तो देवव्रत को देने में जरा भी पीड़ा नहीं होती , किन्तु किसी की अन्यायी मांग के लिए न्यायमार्ग पर चलते हुए अपने अधिकार छोड़ना कहाँ का धर्म है ??

ठीक है उन्होंने देवव्रत को अधिकार त्यागने को नहीं कहा है , वे चाहे तो उन्हें पदच्यूत भी कर सकते है , वह भी उन्होंने नहीं किया है , किन्तु अपने पलंग पर औंधे मुह लेट हाथ पैर पटककर अपनी पीड़ा का प्रदशन कर , क्या अपने  पुत्र को अप्रत्यक्ष रूप से बाध्य नहीं कर रहे ??

अगर मेने खुद अपना [पद नहीं छोड़ा तो आने वाला समय मुझे पित्रद्रोही कहेगा , और मेने अधिकार छोड़ दिए तप राजसुख ???

देवव्रत हांसे - राजसुख  हाहाहा  .. .......   क्या होता है यह राजसुख , चक्रवर्ती सम्राट के विरुद्ध हस्तिनापुर में कोई तिनका नहीं तोड़ सकता , पर क्या वे सुखी है ??  एक युवती को पाने के लिए हाथ पाँव पटक रहे है ,  कहाँ है राजसुख ?? अगर राज पाने से ही कोई सुखी होता तो  " जिस सुख के लिए राजा इतने आतुर ओ रहे है , यह भी कोई सुख है क्या ?? ऐसे ही सुख पाने के लिए पिता पहले भी तड़पे होंगे होंगे , पर क्या सुख मिला ??

 देवव्रत ने सोचा नहीं चाहिए उन्हें यह राजसुख , वह बिना राज्य के भी संतुष्ट  रह सकते है ,  वे अपनी इच्छा से अपना अधिकार छोड़ सकते है , वे एक छोटे से राज्य के लिए पिता के दुःखो  का कारण बन पित्रद्रोही नहीं कहलायेंगे।   अपने अधिकारों के लिए लड़ना तो समाज का धर्म है , और अपने अधिकार त्यागना ??  ओ हस्तिनापुर का राज्य पिता की कोई निजी सम्पति नहीं , जो कोई भी इस राज्य का अपनी शर्त के अनुसार अपहरण कर ले।   और यह शर्त है भी क्या , हस्तिनापुर का अपहरण ही तो है।  सेना लेकर आक्रमण ना किया , बस एक वचन में सारा राज्य छीन  लिया ,

किन्तु तभी उनके मन में काली मूर्ति ठठाह  के हंस पड़ी

कौन है तू देवव्रत ने पूछा

मुझे नहीं पहचाना ??

काली मूर्ति हंसी ,  में तेरे मन का कलुष हूँ , बहुत चतुर समझता है न तू अपने आप को।  समझता आई कुतर्को से और अतर्को  से तू पिता को पराजित कर देगा , और जीवन का सुख भोगेगा , राज्याधिकार तू नहीं छोड़ेगा , और वंशवृद्धि के नाम पर अपना विवाह करेगा , स्पष्ठ स्वीकार क्यू नहीं करता की तुझे राज्य भी चाहिए और स्त्री सुख भी।

हे भगवान्।  देवव्रत ने अपना सर पकड़ लिया , यह में क्या सोच रहा हूँ , उन्होंने अपना सर आकाश की और उठाकर देखा और कहा , हे प्रभु क्या इच्छा है तेरी ???

आगे का भाग कल

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