महाभारत भाग 7 - #पुरोहितवाणी
देवव्रत की प्रतिज्ञा के बाद सत्यवती को लेकर उनकी संखिया बाहर आती है , भीष्म ने जब पहली बार सत्यवती को देखा तो विश्वाश नहीं हुआ की वे दासदास की कुटीर में ऐसी कन्या भी रहती आयी होगी। न वैसा वर्ण , न वैसा रूप। दासदास की ऐसी पत्नी भी साथ ही थी , उसके रूप में भी कुछ असाधारण नहीं था , सत्यवती सचमुच
असाधारण सुंदरी थी , केवट कन्या तो वह लग ही नहीं रही थी। ऐसा लगता था जैसे किसी आर्य राजकुमारी नई केवट कन्या का अभिनय किया हो , उनकी उम्र २५ वर्ष के ऊपर ई थी , केवट घरो में इतने समय तक कन्याये अविवाहित नहीं रहती , हो सकता है दासदास को कोई उपयुक्त वर ना मिला हो , या फिर सत्यवती किसी विशेष प्रकार के वर की आशा रखती हो।
यह आपकी ही पुत्री है दासदास। देवव्रत के मन का प्रश्न अधरों तक आ ही गया।
में इसका पिता हूँ युवराज , जनक नहीं दासदास , मछलिया पकड़ने गए केवटो ने इसे भी यमुना की जलधारा में बहते पाया, इसका रंग रूप और तेज बताता है की यह किसी क्षत्रिय जाति की कन्या ही है।
सत्यवती अपनी सखियो से विदा लेकर पिता के पास आयी , कुछ बोली नहीं , चुपचाप खड़ी रही , उसने चुपचाप दासदास के कंधे पर माथा टेक लिया , जैसे लड़खड़ाकर गिरने से बचने के लिए किसी स्तम्भ का सहारा लिया जाता है।
दासदास ने अपनी बाह में भरकर बेटी को सहारा दिया , उसके स्वर भर्रा आये थे , पर शब्द स्पष्ठ थे
बेटी मै आजीवन तुझे घर पर नहीं रख सकता था , तुझे किसी क्षत्रिय राजा या राजकुमार के साथ जाना ही था , स्वेच्छा से ना भेजता तो बलात ले जाते , इस सौदे में तेरे सुख ले लिए अधिक से अधिक जो में मांग सकता था , वो मेने मांग लिया। अब तेरे लिए भगवन से बस यही मांगता हूँ , तू अपने पति के घर में खुश रहे।
दासदास के शब्द खो गए आगे की बात कहने के लिए उन्होंने बेटी का कन्धा थपथपा दिया , जैसे कह रहे हो , जा बेटी जा , तुम्हारा मेरा सम्बन्ध यही तक का था , , सत्यवती धीरे धीरे रथ की तरफ बढ़ी , साथियो ने उसे सहारा दिया और अपने लिए लाये गए रथ पर वह आरूढ़ हो गयी। देवव्रत ने प्रणाय का संकेत दिए , और रथ हस्तिनापुर की और लौट चले।
सत्यवती के आते ही देवव्रत के मन में पहला भाव प्रसन्नता और उल्लास का ही जागा था , उससे भी ऊपर उनके मन में शायद बहुत बड़ा असाधारण मूल्य चुकाकर कुछ असंभव उपलब्ध कर लेने का भाव था , देवव्रत ने आज अपने सारे भौतिक सुखो की तिलांजलि देकर पिता के इस जीवन खंड में उनकी मनोकामना को पूरा किया था , शायद वह अपने पूर्वज पुरु से भी बड़ा त्याग था। पुरु ने तो निश्चित अवधि के लिए पिता की वृद्धावस्था दान लेकर उन्हें अपना योवन दिया था , अपना योवन देकर पुरु की समस्त भौतिक इच्छाये ऐसे ही मर गयी होगी , किन्तु देवव्रत तो अभी मात्र २५ साल के ही थे , पुरु ने फिर भी अपना राज्य तो पाया था , किन्तु देवव्रत ने तो वह भी छोड़ दिया, देवव्रत ने अपने सारे बंधन तोड़ दिए थे , उन्हें सुख का प्रपंच अब कभी भृमित नहीं कर पायेगा , वे मुक्ति की आनंदावस्था में विचरण करेंगे।
देवव्रत ने क्षणिक फिर सोचा , दासदास ने अपनी पुत्री से क्या कहा था ?? " तुझे किसी सम्राट या राजकुमार के साथ तो जाना ही था। क्या दासदास अपनी पुत्री को साम्राज्ञी बनाकर भी खुश नहीं है , सत्यवती ने बहुत कुछ पाया है , तो बहुत कुछ खोया भी है , यह बात दोनों पुत्री पिता भी जानते है , नहीं तो वह आते समय उदास ही क्यू होती ? जब सम्राट दसरथ का परिवार भी खुश नहीं रह सका , तो कोई भी राजवंश में सुख कभी हो ही कैसे सकता है। अब केकेई फिर किसी राम को वनवास ना दे , इसलिए मेने खुद को वनवासित कर लिया।
राजमहल जब देवव्रत लौटे , तो उनसे पूर्व सुचना राजभवन तक आ गयी थी ,
देवव्रत पिता आये, और उनके पाँव छूकर आशिर्वाद लिया , पिता ने खुद कहा, मेने सबकुछ सुन लिया है पुत्र। वो देवव्रत की और देख भी नहीं पा रहे थे , किन्तु मुह मोड़कर भी तो वह शांत नही रह सकते , वस्तुतः देवव्रत से उनका वह स्तम्भ नहीं रहा , जो आजतक था , उन्होंने अपने पुत्र को जाना ही नहीं था , उन्होंने गंगा से देवव्रत की रक्षा , इसके अलावा सांतनु ने देवव्रत के बारे में कभी जाना ही नहीं। देवव्रत की जगह अगर कोई और शिशु भी होता , तो सांतनु को उससे मोह जाता , किन्तु जिस शिशु का नाम देवव्रत था , उसे महाराज पहचान नहीं पाए। गंगा के वियोग में उन्हें किसी चीज़ का होंश नहीं था , महाराज सांतनु आखेट और युद्ध कुछ भी नहीं करते , खुद महादेव की तरह कामदेव को नष्ठ कर वो पुरे संसार में तांडव मचा रखे थे , पर उसी बीच ऋषि के आश्रम नन्हा शिशु भी पल रहा था , वे उसकी प्रशंशा सुनते रहे की युद्ध में कुशल है , चरित्रवान है , तक नहीं जान पाए , तब तक यमुना नदी तट पर उन्होंने सत्यवती को देखा था , सत्यवती देखकर उन्होंने अपने आप वह शिव नहीं है , उनके मन का काम दहन नही हुआ है , बस कुछ समयकी उग्रता ने उसे दबा मात्र रखा था। सत्यवती सांतनु को उनका वास्तविक दर्शन करवा दिया था।
और सांतनु देवव्रत नाम का अब उनका कोई पुत्र ही क्यू है , अगर वह नहीं होता , तो बिना किसी कारण विवाह हो जाता , उन्हें लगा की गंगा को जाना ही था , इसीलिए वो अपने पुत्रो को मारकर मुझे इसलिए मुक्त रखना चाहती थी , में दुबारा विवाह कर सकूँ , गंगा अगर इसे भी जल प्रवाहित कर देती क्षति हो जाती ? वह आज उनके जीवन परमसुख छीन रहा है , वह उनका शत्रु है , जीवन में इतना वंचित तो शत्रुओ ने भी नहीं किया था ,
पर आज वही देवव्रत उनके सामने बैठा था , कितना समर्थ , और कितना त्यागी जैसे अपने मचलते हुए हठ में एड़िया रगड़ रगड़ कर रोते हुए पुत्र के लिए के लिए कोई समर्थ पिता उसकी मनचाही वस्तु ले आया हो ,
तुमने जो प्रतिज्ञा की है गांगेय , अंत में सांतनु बड़ी कठिनाई से बोले , वह कठिन ही नहीं असंभव प्रतिज्ञा है , तुमने भीषण काम किया है , मै तुम्हे क्या दे सकता हूँ पुत्र , तुम जैसे पुरुष को कोई दे भी क्या सकता है , तुम्हारा जन्म किसी से कुछ लेने के लिए हुआ ही नहीं है , तुम आजीवन दोगे , लोग याचक होंगे , और तुम दाता , मेने तुम्हे कभी नहीं पहचाना पुत्र , मेने आज तुम्हारा एक अलग ही रूप देखा है , अपनी इस प्रतिज्ञा के कारण तुम " भीष्म कहलाओगे "
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