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Sunday, January 15, 2017

Mahabharat

महाभारत (  प्रस्तावना )

हस्तिनापुर के सम्राट शांतनु का विवाह गंगा के साथ हुआ था, गंगा से प्रेम विवाह करते समय गंगा की एकमात्र शर्त यह थी की आप मुझे कभी मेरे कामो में टोक नहीं सकते, चाहे मेरा वो कोई भी निर्णय क्यू ना हो, सही हो या गलत, महाराज ने भी पत्नी प्रेम में यह वचन दे दिया ।। वैदिक संस्कृति में वचन देने के भी नियम बताए गए है, तो इस काल में अधर्म इस तरह धर्म के अंदर भी प्रवेश कर चुका था ।। इसका हर्जाना भी शान्तनु को सीघ्र ही भरना पड़ा, गंगा ने एक के बाद एक पुत्र नदी में बहाने शुरू कर दिए, अंत में एक पुत्र हुआ, उसे भी जब गंगा बहाने निकली तो शान्तनु ने हाथ पकड़ लिया ।। की बस अब तो रहने दो , इसी बात से खिन्न होकर गंगा अपने पुत्र को ले जाती है यह वचन देकर की आज से आपको आपका पुत्र प्यारा है, तो इसे में उचित शिक्षा देकर आपके पास लोटा दूंगी ।। गंगा चली गयी, इन बातों को बरसो बित गये, यहाँ गंगा की याद कभी कभी तो शान्तनु को बहुत आती मगर सब कुछ समय के साथ साथ इतने वर्षों में धुंधला होता चला गया । अब शान्तनु और उनकी पत्नी और पुत्र की एकदम अलग दुनिया थी , एक और जहाँ शान्तनु राज पाठ और विलास में व्यस्त थे, तो दूसरी और देवव्रत परशुराम के आश्रम में ऋषि मुनियों के पास से शिक्षा ग्रहण कर रहे थे ।।

समय बीतता गया , सम्राट भी अब कुछ हलके उम्रदराज होने लगे थे, यौवन का घमंड था, और जाती हुई जवानी की चिंता भी,  राज पाठ बहुत विशाल था, पर कहीं कहीं से उत्पाती शक्तियों द्वारा  आम नागरिकों को प्रताड़ित करने की खबर दरबार में आती ही रहती थी, सब नहीं किन्तु कुछ ऊँचे पदों के लोग भी इन पनप रहे नए राक्षसों से धन प्रचुर मात्रा में पाते थे,  एक दिन दरबार में एक संदेशवाहक समाचार लेकर आया की हस्तिनापुर की सीमा में कुछ उत्पाती शक्तियों ने नागरिकों पर आक्रमण कर उन्हें बंधक बना लिया है ।। और वह हस्तिनापुर को चुनोती दे रहे है।। शान्तनु क्रोधित होकर एक स्वाश लिए बिना ही बोल पड़े, कुरु राज्य पर आँख उठाने की हिम्मत?? अब इन दानवो का अंत समय आ गया है, मेंने इन्हें इतने दिन छोड़कर गलती ही की, तभी दरबार में कुछ मंत्रियो ने राजा को समझया, अभी इस स्तिथि में बिना तैयारी के उनसे युद्ध करना उचित नहीं, परंतु इसबार शान्तनु ठान चुके थे, उन्होंने तुरंत सेना एकत्रित की, और युद्ध के लिए निकल पड़े। उस ग्राम पहुंचे जहां नागरिकों को बंधक बनाया गया था।। पर यह क्या था????

एक लंबा चौड़ा, बड़ा ही हट्टा कट्टा नोजवान, नए नए आधुनिक हथियारों से परिपूर्ण उन सभी राक्षसों का संघार ऐसे कर रहा ताज जैसे साक्षात परशुराम ने ही फरसा छोड़ धनुष धारण कर लिए हो,  इस अकेले युवा का भय उन बलवान से बलवान राक्षसों के चहरे पर साफ़ नजर आ रहा था ।।  शान्तनु बस तरह तरह की युद्ध कला देखकर दूर से ही आंनद उठा रहे थे, और मन ही मन सोच रहे तेज़ काश की मेरा पुत्र ऐसा होता !!

अंत में राक्षसों के दया याचना करने पर उस युवा  ने कहा, तुम समाज में रहकर आतंक फैलाते हो, तुम्हे यहाँ नहीं रहने दिया जा सकता, तुम्हे यह राष्ट्र का त्याग करना होगा ।।

राक्षसों की पराजय के पश्चात , महाराज शान्तनु उस युवा बालक के पास आये, और बोले हे तेजस्वी बालक कौन हो तुम??
उस युवा ने बड़ी विनम्रता से जवाब दिया, महाराज शान्तनु में हूँ गंगा पुत्र देवव्रत ।। मेरी माता का नाम गंगा है, और क्षमा कीजिये, मेरे पिता का नाम भी आप के ही नाम राशि शान्तनु ही है।।  शान्तनु बस देवव्रत को निहारते रह गये, कुछ पल सुन्न रहने के बाद मन में ढेरों प्रशन्नता लिए बोले, पुत्र, तुम्हारी माता से मिल सकता हूँ में? में उन्हें धन्यवाद कहना चाहता हूँ, की एक  तेजस्वी पुत्र उन्होंने समाज को दिया है।

देवव्रत ने कहा क्यू नहीं महाराज , पास में ही मेरी कुटिया है, माँ और हम वही रहते है।। देवव्रत ख़ुशी ख़ुशी महाराज को अपनी कुटिया माँ से मिलवाने ला रहे थे, उन्हें पता भी नहीं था, आज इतने वर्षों पश्चात फिर इतिहास वर्तमान बनकर खड़ा था ।
गंगा से मिले, गंगा ने भी अपने वचन के अनुसार देवव्रत को अपने पिता से परिचित करवाकर उसे महाराज शान्तनु को ही सोंप दिया , उसी दिन से महाभारत की यह कहानी लिखी जानी शुरू हो गयी ।।
देवव्रत के लिए यह एकदम नया था,  उसका तो बचपन और किशोरावस्था दोनों ही माता पिता की छत्र छाया में नहीं बिता था,  कहाँ गुरुकुल की शिक्षा प्राप्त कर अपनी माँ के पास आये बस कुछ ही तो महीने हुए थे, देवव्रत पिता से मिलने की खुसी मनाते, या माता से बिछड़ने का दुःख??  भला एक मानव मस्तिक इतनी सारी उथल पुथल कैसे बर्दास्त कर सकता था!!  कुछ समय विश्राम के पश्चात शान्तनु देवव्रत को रथ पर बैठाकर हस्तिनापुर राजमहल के लिए रवाना हो गए ।

    इस घटना से पूर्व की कल्पना तो देवव्रत ने खुद कभी नहीं की थी, ना हस्तिनापुर को पता ताज उनका कोई नया उत्तराधिकारी आने वाला है, जिसका नाम भी उन्होंने आज तक नहीं सुना था, वो उनपर शाशन करने वाला था ।  असम्भवः असम्भवः देवव्रत का मन कई बार दुहराया, किन्तु शान्तनु का रथ अब राजधानी की सीमा में प्रवेश कर चुका था, और कुछ ही दूरी के बाद महल था, यही सत्य था ।।

हस्तिनापुर का नगरद्वार " नववधू " की तरह सजाया गया, राज्य के सभी नागरिक व्यापारी , सैनिक, अधिकारी, जो देखो राजा के सम्मान में हाथों में फूल लिए खड़े थे,  राजा के पास इतना भी समय नहीं था, इतने लोगो के बीच वो देवव्रत का परिचय करवाते, आखिर होने वाला भावी राजा था वो ।  राजा का रथ रुकना तो दूर धीमा तक नहीं हुआ,  राजा ने चलते हुए इतने सारे लोगो का अभिवादन स्वीकारने का कष्ठ नहीं किया, राजा के रथ तो सबने देखे, पर राजा की एक झलकी किसी ने ना देखी ।। देवव्रत रथ में बैठा यही सब सोच रहा था ।।

अहंकार !!!

 प्रजा की इतनी उपेक्षा ?? यही अहंकार तो राजवंशो को खा जाता है ।। इतने सालों से अपनी प्रजा के साथ रहते, राजा को जब प्रजा से प्रेम नहीं हुआ, तो क्या मुझसे होगा?? यह बात सुनकर देवव्रत सहम उठे ।। उनकी आँखों के आगे अंधेरा छा गया,  पिता को पाकर माता बिछड़ गयी, देवव्रत का यह दुःख भी शान्तनु नहीं समझ पाए ।। इस बिलगाव के कारण कितनी पीड़ा उन दोनों को हुई है, इसका कोई भाव महाराज के चेहरे पर नहीं था ।। माता चाहती थी की देवव्रत गुरुकुल में शिक्षा प्राप्त कर पिता शान्तनु के साथ रहे,  और पिता है जो राजविलासो में इतने खोये है, की वो एक माँ और बेटे के बिछड़ने का दुःख भी समझ नहीं पाए ।।

देवव्रत का बाल्यकाल किशोरावस्था, ऋषियों के साथ उनके आश्रम में कठोर अनुशाशन में कट गए, तपस्वी गुरुओं का कर्तव्यमिश्रित प्रेम उन्हें बहुत मिला, मगर माता पिता का असली वात्सल्य ??

बस उसी अवस्था में देवव्रत के मन में परिवार को लेकर बहुत प्रशन्न उठते थे, पति और पत्नी का आकर्षण एक दूसरे को सम्मान और स्वतंत्रता देने में है, या एक दूसरे को अपनी इच्छायों का दास बना लेने में है ।। अगर एक पक्ष दूसरे को खुश करने में ही जीवन खपा देता है, तो दूसरे पक्ष से प्रेम की कामना क्यू होती है??  स्त्री और पुरुष विवाह क्यू करते है?? उनके रिक्त स्थान भरने के लिए या एक दूसरे के अभाव पुरे करने के लिए??  या एक दूसरे के सहारा लेकर अपनी अपनी अपूर्णता को पूर्ण करना चाहना विवाह है??

व्यक्ति संतान अपने सुख के लिए चाहता है,  तो क्या संतान वह खिलौना है जिसे बच्चा अपने खेलने के लिए मांगता है?  अगर वो खिलौना टूट जाता है तो बालक रोता है, इसलिए नहीं की उसका खिलौना टूट गया है, वो इसलिए रोता है, की उसकी सम्पति नस्ट हो गयी है ।। वो इसलिए रोता है, की जिससे खेलकर उसे सुख मिलता था, उसका वह आधार खो गया है ।।

देवव्रत के मन में प्रश्न हथोड़े की तरह चल रहे है,  संतान सुख, वात्सल्य सुख , यह सुख है क्या?? अपनी सुविधा को सुख मानते है, या अपने अहंकार की पुष्टि को?? या मन की अनुकूलता को?

इतना सोचते सोचते रथ महल में प्रवेश कर गया, अब और देवव्रत कुछ सोचना भी नहीं चाहते थे, उनका टुटा हुआ ह्रदय बस अपने पिता के वात्सल्य को ही तरस रहा था, आज की शाम दोनों पिता पुत्र  ने साथ में ही भोजन किया ।। कुछ दिन बहुत अच्छे से बीते ।।

एक दिन सुबह सुबह राजा  रथ लेकर कहीं निकल रहे थे,  राजा अक्सर देर से ही उठते थे, आज देवव्रत से उन्हें सुबह सुबह देखा तो सोचा क्यू ना दिन की शुरुवात पिता के आशीर्वाद से ही की जाए ।। जैसे ही देवब्रत पिता का आशीर्वाद लेने झुके, पिता ने उनहे देखे बिना ही तेजी से रथ आगे बढ़ाया और निकल गए ।। पिता तो अहंकार भरी सवारी लेने में उत्सुक थे, शुरू में तो देवव्रत को लगा की पिता के वात्सल्य के कुछ छींटे उनपर पड़े है,  उनके मन में भी ग्रहस्ती जीवन जीने की कामना जाग गयी थी , परिजनों के संमंधो को वे सामाजिक आवश्यकता और कर्तव्य से हटकर भावनात्मक स्तर पर देखने लगे थे, और ऐसे समय में पिता की और से यह उपेक्षा?? #purohitwani

देवव्रत का मन छुब्ध होकर खुद को धिक्कारने लगा,  देवव्रत सोचने लगे कोई किसी की अपेक्षा करता ही क्यू है??  वे अपने भीतर ही संपूर्णता क्यू नहीं खोज लेते? क्या आवश्कयता है किसी के प्यार की??  यह अपेक्षाएं ही तो दुखो का कारण बनती है, दुःख से बचना है तो अपेक्षाओं से बचना होगा,  हमें मान लेना चाहिए  की हमारा जीवन एक कठोर कर्तव्य है, जिसका निर्वाह हमें करना ही होगा,  यह स्नेह , प्यार , वात्सल्य, समयानुसार ओढ़े गये छल -छदम मात्र है,  पिता के मन में ही अगर वात्सल्य होता तो क्या वो गंगा का हाथ ना पकड़ लेते, देवव्रत की बारी आई तो हाथ पकड़ा भी था , पिता को अपनी पत्नी प्यारी थी, इसलिए अपने होंठों को सी कर बैठे रहे,  एक एक बाद एक पुत्र माँ गंगा ने नदी में बहा दिए, पत्नी प्रेम में एक बार भी पिता ने माँ का हाथ ना पकड़ा , पिता के मन में ही अगर पुत्र को लेकर वात्सल्य होता, तो क्या पहली बार में ही हाथ पकड़ ना लेते,

पर एकाएक देवव्रत के मन का प्रवाह भटका - सोचा आज पिताजी के व्यव्यहार में तो उन्मुक्त सा ही था, कहीं पिताजी अस्वस्थ तो नहीं, स्तिथिया बदलते ही सारे निष्कर्ष बदल जाते है, शायद महाराज उस दिन भी अस्वस्थ ही हो, जिस दिन में उनके साथ आया था !!  यदि राजा सचमुच अस्वस्थ थे तो प्रजा का अभिवादन स्वीकार करने, या स्वागत देखने कैसे रुकते, रोगी के लिए सामजिक व्यव्यहार की आवश्कयता नहीं होती, शिष्टाचार के नियम भी उसके लिए नहीं होते, औपचारिकता की अपेक्षा उनसे नहीं की जाति, पिताजी अगर अस्वस्थ ना होतेज़ तो सारथि भी तो इतनी जल्दी में नहीं होता ।।
#पुरोहितवाणी

देवव्रत तुरन्त अपने सारथि से कहता है,  चलो पिताजी के पास, मगर रास्ते में भी देवव्रत यही सोचा जा रहा है, क्या पिताजी का माता से मोह था या प्रेम??? में इस समय पिताजी से मिलने क्यू जा रहा हूँ??? यह मेरा मोह है या प्रेम??  भीष्म अब सोचते ही जा रहे थे, और उनका रथ आगे निकल चुका था ।।
क्रमशः
आगे का भाग कल  ---

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