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Saturday, January 14, 2017

Ramayan

रामायण   -  #पुरोहितवाणी  (प्रथम लेख)  

मानव जाति और असुरो के बीच का संघर्ष कोई आज का नहीं है, जब से सृष्टि का निर्माण हुआ है, यह संघर्ष निरंतर चला ही आ रहा है । जहाँ भी संसार के कुछ लोगो में आपसी अहंकार शुरू हुआ, अलग अलग मत बन गए, और वो वैदिक संस्कृति के मानवतवादी विचारधारा और संस्कृति छोड़, मानवो का भक्षण करने में ही लिप्त हो गए । 

यह हमारा हम हिन्दुओ का सौभाग्य है कि " रामायण " जैसे महाकाव्यों को हमारे पूर्वज हमारे लिए लिखकर, सहेज कर छोड़ गए, ताकि वास्तव में घटित हुई इन घटनाओं से आप और हम, समाज के सभी लोग शिक्षा लेकर, समाज में आपसी शांति को बनाये रख सके। शांति का आधार कायरता नहीं, बल्कि शक्ति है। यही रामायण का मूल सार भी है। 
में जो रामायण आपके सामने रख रहा हूँ, इसे सिर्फ पढ़े ही नहीं, इसे आज के संदर्भ में भी देखकर पढ़ा जाए, तो हमारे लिए  अत्यंत ही लाभदायक है। क्यू की इतिहास ही भविष्य की अदालत भी है। 

एक दिन अचानक विश्वामित्र ( श्री राम चंद्र जी के गुरु ) ने एक समाचार सुना, समाचार सुनकर विश्वामित्र सन्न रह गए, क्षण भर के लिए एक दम चुप थे, इस समाचार पर वो भरोषा भी नहीं कर पा रहे थे ।  उनकी लाल आँखे, कपाल और लाल मुख बता रहा था, की बहुत ही भयभीत , चिंतित, और क्रोधित थे,  समाचार सुनकर सिर्फ विश्वामित्र के मुँह से सिर्फ एक ही शब्द निकले " हे ईश्वर कोई रास्ता दिखा ।। समाचार सुनाने वाला तो भय से पहले ही जड़ पकड़ चूका था । फिर एकदम झटककर विश्वामित्र अपने शिष्यों से बोले, मुझे वहां ले चलो, जहाँ यह घटना हुई है , त्रस्त और भयभीत शिष्यों को देखकर विश्वामित्र का उद्वेग बढ़ा जा रहा था ।

वे सोचते है हे ईश्वर यह  तो मेरे आश्रित है, इन्ही को रक्षा करना ही तो मेरा धरमः है।  और समाज की सुरक्षा की चिंता करना, उसे संकट को दूर करने के उपायों के बारे बताना ही तो ब्राह्मण का काम था ।। और मेंने अपने ही देशवाशियो को असुरक्षित छोड़ दिया है ।। 

ठीक विश्वामित्र वहां पहुँच गये, जहाँ यह घटना हुई , उनके कठोर शुष्क चेहरे पर दया, करुणा, पीड़ा, उद्वेग, लोभ और क्रोध कुंडली मारकर बेठ गये थे, उनके पैरों के पास उन्ही के शिष्य नक्षत्र का मृत देह पड़ा था , यह पहचानना भी मुश्किल था कि यह मृत शरीर किसका है?? शरीर के विभिन्न अंगों की त्वचा को फाड़कर निचोड़ दिया गया था, जैसे रजाई को फाड़कर गूदड़ निचोड़ दिया जाता है । घायल त्वचा से नंगी हडडिया नज़र आ रही थी ।।टूटी हुई मांसपेशियां रस्सी के सामान उलझी हुई थी, चेहरा इतनी जगह से खरोसा गया था, की अंग अंग पहचानना मुश्किल हो गया था,  विश्वामित्र का मन हुआ की आँखे फेर ले, किन्तु कब तक??? बहुत दिनों तक पहले भी तो ऐसी घटनाएं नित्य ही हों थी, इस बार वे आँख नहीं मूंद सकते थे , कुछ न कुछ व्यवस्था तो करने किं जरुरत थी ।।

इस पूरी घटना का प्रत्यक्ष गवाह सुकंठ था,  जो की घटना के समय नक्षत्र के साथ ही था, किन्तु किसी तरह भागकर वह राक्षसों से अपनी जान बचाने में असफल रहा ।। विश्वामित्र जब भी कोई हवन या धार्मिक अनुष्ठान करते, राक्षस उसमे बाधा पहुंचाने का जाते।

राक्षस दरअसल विश्वामित्र से यह समझौता चाहते थे की, विश्वामित्र उन्हें सस्त्रो का ज्ञान दे, तभी राक्षसों किं तरफ से शांति की कोई बात संभव थी, पर विश्वमित्र जानते थे, यह शांति का कोई विकल्प नहीं, इससे तो यह दुष्ट राक्षस और ज़्यादा शक्तिशाली हो जायेंगे । इस तरह आर्य संस्कृति समाज से निकल कर , समाज एक राक्षस संस्कृति बन जाएगा ।। विश्वमित्र अपने दूसरे घायल शिष्य के सुकंठ के पास पहुँच कर उससे पूछा - वत्स यह सब कैसे हुआ ??

सुकंठ की आँखों में एक त्रम तेर गया, जैसे किसी यजीदी ने अपने मित्र की हत्या isis के केम्प में देखि हो । इन बलात्कारियो मल्लेचो का भी हत्या और अत्याचार का तरीका समान ही है, बल्कि कलयुग में तो यह इस्लामी राक्षस और ज़्यादा निर्मम हो गए है ।।

सुकंठ से विश्वमित्र ने कहा , वत्स अभी स्तिथि में नहीं हो बताने की, तो में बाद में आता हूँ, तुम आराम करो , किन्तु सुकंठ ने पीड़ा भरी मुस्कान के साथ कहा " गुरुवार जो देखकर आया हूँ, उतना कष्टदायी इस घटना को बताना नहीं है । उसने एक निश्वास छोड़ा और कहा  ' राक्षस हमसे बल, शारीरिक शक्ति, और धन तीनो में ज़्यादा है ।। वो आश्रम तक घुस आते है, आपने हमें सिखाया की राक्षसों को ज्ञान देना व्यर्थ है,  अगर आप उन्हें उनकी अभद्रता पर टोकते है तो उल्टा वो आपसे ही झगड़ा करेंगे, बस इसी बात को सोचकर सभी नगर वाले, और आश्रम वाले आँख मुंड कर रखते है ।। कोई भी इन राक्षसों का विरोध नहीं करता, वो हमेशा हथियारों के साथ ही होते है, और हम निसस्त्र, और इसी का परिणाम नक्षत्र का क्षत- विकृत शरीर आपके सामने है ।। '

विश्वमित्र समझ गए की सारी शिकायत अब शिक्षा पद्धति को लेकर ही है ।। इस बार विश्वमित्र के चेहरे पर निर्णय की द्रढता थी,  हालांकि यह द्रढता कई  बार पहले भी उनके मस्तिकस् में जन्म ले चुकी थी, किन्तु बार बार उन्होंने इसे स्थगित कर दिया था ।।

विश्वमित्र ने शिष्यों से कहा  सभी ग्राम वासियो को आसपास के 10 नगरों को इस घटना के बारे में सूचित कर दिया जाए, जिससे वो खुद की और हमारी दोनों की रक्षा भी करेंगे ।। और जरुरत पड़े तो राजा दशरथ के सीमा चौकी पर तैनात सेनानायक को बुलाकर राक्षसों को दण्ड दिया जाए ।। 

नक्षत्र की उधड़ी हई मांसपेशियां,  सब के सब विश्वमित्र को सताये जा रही थी, और यह ना तो कोई पहली घटना थी,और ना ही आखिरी ।।

ग्रामवासियो किं तरफ से भी मदद का कोई आस्वाशन नहीं आया,  वे तो उन दुस्टो से स्वम् खुद आतंकित थे,  और राक्षसों के शत्रुता मोल लेकर अपने जीवन को भी संकट में नहीं डालना चाहते थे ।। यह आतंकवादी हमले रावण की ही बंधू ताड़का के राज्य से हुआ करते थे ।।

विश्वमित्र भी यह सोचते है कि ग्रामवासी ही अगर साहसी और जागरूक होते तो राक्षसों की हिम्मत इतनी नहीं बढ़ पाती, फिर कुछ क्षण सोचकर विश्वमित्र ने शिष्यों से पूछा - राजा दशरथ के राज्य कें सेनापति के पास गए थे?? शिष्यों ने कहा, हाँ मुनिवर किन्तु उनका रवैया भी उदासीन ही रहा ।।
सेना पति बहुलाश्व को अभी अभी इन राक्षसों की और से बहुमूल्य रथ मिला है,  उनकी पत्नी को ढेर सारे स्वर्ण आभूषण, और मदिरा का दीर्घाकार भांड मिला हुआ है ।।एक अत्यंत सुंदर दासी देने का वचन भी सेनापति को इन राक्षसों ने दिया है । राक्षस बिना युद्ध किये ही विपक्षी सेना को पूर्णतः पराजित कर देते है ।। यह सब सुनकर विश्वमित्र का शांत बैठा रहना मुश्किल हो गया ।

समश्या आज की तरह ही सामान थी, आज की के वो जलवंत सवाल विश्वमित्र के मस्तिक में घूम रहे थे,  यह कैसा समाज है !! यह कैसे लोग है !!  अपराध के प्रतिकार के स्थान पर धन लेकर उन्हें और अपराध करने को प्रोत्साहित कर रहे है, यह कैसा शाशन है, जो सभ्यता और संस्कृति से दूर हिंसक पशुओं की तरह जीवन व्यतीत कर रहे है ।। इतना ही नहीं राक्षस अपराध करने से पहले सेनापति को धन देते थे, की वो अपराध के स्थान पर समय पर ना पहुंचे ।।

राक्षस कभी भी आश्रमो तथा ऋषयो को साम्मान की दृष्टि ने नहीं देखते थे,  साधुओं को उपहास की नगण्य वस्तु मान चुके थे,  सेनानायक भी अभी वही राक्षसों वाला व्यव्यहार ग्रामीणों और ऋषियों के साथ कर रहे थे ।।

एक और घटना बताते हुए शिष्यों ने कहा, की कुछ दिन पहले राजा दसरथ के गृहनगर के पास ही, एक ग्राम में खुद को श्रेष्ठ कुल का कहने वाले लोग घुस आए, निर्धन लोगो पर बल का प्रयोग कर उनकी स्त्रियों को भोग करने की जिद करने लगे, ग्रामवशियो ने प्रतिकार किया तो धमकाकर बोले, तुम निर्धन लोगो का अस्तित्व और नारिया है ही हम श्रेष्ठ कुल वाले लोगो के लिए ही हैं ।। गुरुदेव वहां के सभी ग्रामीणों को मारकर उनकी स्त्रियां बलपूर्वक उठा कर वो ले गए ।।

यह पूरा हुआ ही नहीं था कि कोई बाहर विश्वमित्र से मिलने आया था,  चार लोग चारपाई को उठाये थे, उस पर एक मृत बूढी महिला लेती थी, और उसके साथ चीत्कार करती दो किशोरी बालाएं । रोती बिलखती उन असहाय कन्याओं के चेहरे बता रहे थे, की किस तरह का अपमान और पीड़ा वो सहन कर के आ रही है ।।

सह सा अब विश्वमित्र के मन में एक घृणा उत्प्पन होने लगी,  और उन्होंने ठान लिया की आज से अभी से में इस घृणा को एकत्र करूँगा ।।

विश्वमित्र ने इसके बाद क्या कदम उठाये, इसकी घटना का जिक्र कल अगले भाग में ।। लेख  कैसा लगा कमेंट  में बताना ना भूले ।। 

जय श्री राम

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