#हमारा_धर्मयुद्ध ------ विश्वविजयी राम की वीर गाथा
आश्रम बस कुछ दुरी पर है , इस पड़ाव को पार करने के बाद हम सिद्धार्थाश्रम पहुँच जाएंगे राम , अब अंतिम चरण है , तब तुम्हे ताड़का , सुभाहु और मारीच का वध करना है , पर युद्ध से पहले तुम्हे समर्थ बनाने के लिए में तुम्हे कुछ दिव्यास्त्रों का ज्ञान देना चाहता हूँ, किन्तु एक द्वन्द है पुत्र -- तुम्हे दिव्यास्त्र देकर कहीं में भूल तो नहीं कर रहा ??? कहीं तुम रास्ता भटक कर निष्क्रिय हो जाओ , और उन हथियारों का अनुचित प्रयोग कर उसका नाश ना कर दो।
ऐसा कभी नहीं होगा। राम के बोलने से पहले ही लक्ष्मण बोले ' मेरी माता कहती है , राम ना तो कभी अनुचित करते है , और ना कभी निष्क्रिय रहते है , गुरुवर राम केवल हमारे भैया नहीं है , मेरे भैया तो सबके राम है , " राम" का मतलब यह नहीं की पीड़ित और दुखियारे आकर उनसे न्याय मांगे , मेरे भैया राम खुद पीड़ित और दुखियारे के निकट जाकर खुद उनका दुःख हर लेते है।
लक्षमण की बात पूरी होते ही राम ने गुरु की और देखा और मुस्कुराये " मै अपनी और से आपको पूर्ण आस्वश्त करता हूँ गुरुदेव। कहिये , में आपकी शंकाएं कैसे दूर कर सकता हूँ।
विश्वामित्र बोले - राम मै तो तुम्हारे वचन मात्र से ही आश्वस्त हो जाऊँगा , किन्तु में किसी स्वार्थी ऋषि के समान बिना स्तिथि स्पष्ठ किये तुमसे कोई वचन नहीं लेना चाहता , तुम सोच समझकर फिर बुद्धि से वचन दो , ऐसा ना हो , वचन देने के बाद तुम्हारे मन में द्वन्द विराजे।
राम अब और प्रसन्न थे , एक दम आत्मविश्वास से भरी मुस्कान उभरी " आप कैसा वचन चाहते है ऋषिवर ??
विश्वामित्र बोले -- मेने प्रायः स्तिथि तुम्हारे आगे स्पष्ठ कर दी है राम , पर अभी भी बहुत कुछ ऐसा है , जो बताया नहीं जा सकता है , तुम स्वम् उस और बढ़ोगे , उस मार्ग पर चलोगे , तो अपने आप देखोगे , मै तो केवल संकेत मात्र दे रहा हूँ। फिर ऋषि सात्विक तेज स्वर में बोले " मै भविष्य के प्रति तुमसे आश्वासन चाहता हूँ , की इन दिव्यास्त्रों का ज्ञान प्राप्त करने के पश्चात अयोध्या के सम्राट बनकर सुख- सुविधापूर्ण जीवन व्यतीत करने का लोभ मन में नहीं लाओगे।
राम उत्सुकता में विचलित होते हुए बोले --- आप मुझसे क्या करवाना चाहते हैगुरुदेव ?
ऋषि बोले -- सामान्य शब्दो में कहूंगा अन्याय का विरोध। प्रत्येक मूल्य पर अन्याय का विरोध , वह अन्याय चाहे तुम्हारे परिवार में हो , अपने राज्य में हो , या अपने राज्य के बाहर हो। और विशेष रूप से यह कहूंगा , ऋषि तथा उनके आश्रम असुरक्षित है , जिस भी समय कोई राक्षस चाहता है , उनपर आक्रमण कर उनकी हत्या कर देता है , इस देश में ऋषियों का स्वतंत्र मौलिक चिंतन समाप्त हो गया है , सदाचरण और संस्कृति समाप्त हो गयी है , में इन सभी चीज़ों की रक्षा का वचन चाहता हूँ राम।
राम उन्मुक्त मन से हंसे। बोले ---- ऋषिवर - अपने मन के अनुरूप इस कर्म के लिए वचन देते समय मुझे सोचना क्या है ??
लक्ष्मण भी इधर चेहरे पर प्रफुल्लित मुस्कान लेकर राम की बात का समर्थन कर रहे है।
सोचना है पुत्र - क्यू की राजसिहांसन पर बैठकर अपनी प्रजा की रक्षा करने में , और दूसरे राज्यो पर आक्रमण करने में बहुत फर्क है राम , जो कार्य में सोच चूका हूँ , जिसे करने की ठान चूका हूँ , वह रास्ता बहुत ही कठिन और विकट है , उसके लिए तुम्हे अपना राज्य छोड़कर वनों में रहना होगा , जहाँ ऋषि तुमसे पहले ही जा चुके है , तुम्हे उनका शोध कर उन तक पहुंचना होगा , आदर्श शाशन व्यवस्था नागरिको तक पहुंचकर उनका कष्ठ पूछती है , तुम मुझे वचन दो , तुम ऐसा ही करोगे , अपने राज्य ही नहीं , विदेशी राज्यो में भी तुम आदर्श शाशन व्यवस्था स्थापित करोगे--- एक राजा के रूप में भी और एक मनुष्य के रूप में भी।
ना केवल तुम ऋषियों की रक्षा करोगे , बल्कि उनके शत्रुओ का समूल नाश भी करोगे। तुम इस बात की प्रतीक्षा नहीं करोगे की राक्षस उन्हें पीड़ित करे , तुम रुके नहीं रहोगे, की राक्षस उन पर आक्रमण करें , तुम स्वम् अन्याय का नाश करने का प्रण लेकर घर से निकल पड़ोगे
गुरुदेव ---- राम कुछ कहने को उत्सुक हुए
ऋषि ने अपने हाथ के संकेत से निवारण किया , और बोलते गए " राम पहले पूरी बात सुन लो , चपलता में कोई वचन मुझे मत दो , तुम घर छोड़ने की बात सोचोगे , तुम्हारे माता पिता , भाई बंधू तुम्हारे मार्ग में बाधा बन जाएंगे , में जानता हूँ भीतर की दुर्बलता को तुम एक क्षण में पराजित कर देते हो , किन्तु यह बाहर की बाधाये तुम्हे वन नही जाने देगी , आज तक तुमने सुना है कोई राजा अन्याय का विरोध करने राजमहल छोड़ जंगल चला गया हो ??? माता पिता बंधुओ को बहुत कष्ठ होगा , और तुम्हे उन्हें त्यागना बहुत कठिन , यह सब बेड़िया समान लिपट जायँगे , तुम झटका देकर अपने चरण छुड़ा सकोगें ?? तुम अच्छी तरह सोच लो , सैनिक अभियान ही अगर यह होता , तो में सेना मांगता , किन्तु उन वनों में पर्वतो पर सैनिक अभियान संभव नहीं है पुत्र , वहां तो एकाकी , पदादी ही जाना होगा , और में जिनकी रक्षा की बात कर रहा हूँ ,, वो तुम्हारे प्रजाजन भी नहीं है , संभव है , एक राजा के रूप में वह तुम्हे सम्मान ना भी दे , ऐसा भी संभव है , तुम मानवीय कर्म में सदा बिना सम्मान की इच्छा के केवल तुम्हे कर्म करना है। ..
अब तुम मुझे सोच समझकर वचन दे सकते हो पुत्र।
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