रामायण #पुरोहितवाणी - भाग - 7
राम को सकुशल लौटाने की शर्त विश्वामित्र स्वीकार कर लेते है , अब आगे।
राम की आँखों उन्हें विदा करती हुई कौशल्या , सुमित्रा , तथा दसरथ से चिन्ह अंकित थे , कौशल्या उनके जाने से दुखी थी , तो थोड़ी आंशकित भी थी , पर उनकी दृष्टि में विश्वामित्र के प्रति श्रद्धा और विश्वाश दोनों ही थे , राम कुछ आश्चर्यचकित भी थे , कैसे माँ ने एक ऋषि पर इतना विश्वाश कर लिया , इतना विश्वाश तो वे वसिष्ठ पर भी नहीं करती , जो राजगुरु और राजपुरोहित दोनों थे , जिन्हें अयोध्या का राजकुल वर्षो से जानता था , सम्राट की और माँ ने इस विश्वश्त दृष्टि से कभी नहीं देखा था , फिर ऋषि विश्वामित्र में ऐसी कौन सी बात है , जो माँ इतनी विश्वश्त है , क्या ऋषि इतने निष्कपट और न्यायपूर्ण है?? और माता सुमित्रा , हमेशा के समान द्र्ढ , दो टूक , . कर्तव्य की जाग्रत अग्निकास्ठ सी , माता सुमित्रा की आकृति पर कभी द्वन्द नहीं होता , कभी शिथिलता नहीं होती , कौशल्या २५ वर्ष के राम को भेजकर चिंतित है , किन्तु १३ साल के लष्मण को साथ ले जाने को आग्रह कर रही है। ऋषि ने सम्राट से केवल राम माँगा था , किन्तु लष्मण के साथ जाने की जिद और माता सुमित्रा का उसे रोकने के स्थान पर आदेश आदेश देना -- पुत्र . भाई के साथ जा। अगर इस प्रकार सुमित्रा ने अपनी समस्त शक्ति माता को सँभालने में ना लगाई होती , तो कौशल्या ना जाने कब की टूट कर बिखर गयी होती ,
सम्राट को इतना दीन राम ने कभी नहीं देखा , इनके प्रति पिता के मन में इतना मोह होगा , यह राम ने कभी नहीं सोचा था , अयोध्या की समस्त प्रजा जानती है , की दसरथ की सबसे प्रिय रानी केकयी है , स्वभावतः दसरथ का प्रिय पुत्र भरत ही होना चाहिए। भरत है भी प्रिय होने योग्य। फिर सम्राट ने उसे युवराज बनाने का वचन उसके नाना को दे रखा है , किन्तु राम अपनी आँखों से देखा झुटला नहीं सकते। उन्होंने देखा है , सम्राट राम के लिए अपनी सत्य प्रतिज्ञा भी तोड़ने को तैयार है , वसिष्ठ ने वचन ना दिया होता , और विश्वामित्र से सम्राट ना डरे होते , तो ऋषि के साथ भेजना अस्वीकृत कर देते।
कितनी विचित्र बात है , पिता जिनसे इतने भयभीत है , माता को उसी विश्वामित्र पर इतना विश्वाश है। क्यों ??? निष्पाप माँ किसी पर इतना भरोषा करती है तो वह व्यक्ति अव्य्श्य की निष्कलुक होगा , पर पिता उनके सम्मुख क्यू तेजहीन हो जाते है , अव्यश्य सम्राट के व्यक्तित्व में ऐसे कई दोष है , जो हर किसी सामने निर्भीक और तेजस्वी व्यव्हार नहीं कर सकते।
किन्तु इस सारे दर्शय में केकयी कही नहीं थी , उसे सुचना नहीं मिली ?? वह उनके और लक्ष्मण के प्रति उदासीन है ?? अथवा उनके जाने से प्रशन्न है ? राम का मन अभी भी कोई निर्णय नहीं कर पाता , राजपथ पर भागते रथो में से सबसे पहले में स्वम् ऋषि , राम तथा लक्ष्मण थे , पीछे के रथो में साथ आये बरमचारी और और उनका सामन था , ऋषि विश्वामित्र आत्मलीन बैठे थे , लक्ष्मण आने वाले जोखिमो से अनजान एक उत्सुक बालक के समान दोनों और नागरिको को देख रहे थे। निरंतर भागते हुए रथ नगरद्वार की और बढ़ गए , जैसे ही रथ नगरद्वार तक पहुंचा , विश्वामित्र ने उसे रुकने के आदेश दे दिया , आओ पुत्र राम। वत्स लक्ष्मण रथ के नीचे उतर आओ , , सारथी, तुम रथ को वापस राजभवन लोटा दो , कोई प्रश्न करे तो कह देना मेने ऐसी ही आज्ञा दी थी।
रथ ले जाओ सारथि , राम ने भी कोमल वाणी में आदेश दिया , ,,, किन्तु राजकुमार ---
आदेश का पालन करो , राम का स्वर इस बार पहले से अधिक गंभीर था , इसके बाद विश्वामित्र राम लक्ष्मण और ब्रह्मचर्य साथियो के साथ नगर द्वार से बाहर निकल गए , राम ने लंबे लंबे ३ डग भरे और गुरु के साथ चल पड़े , लक्ष्मण को साथ लेने के लिए थोड़ा प्रयत्न करना पड़ा , वे अभी अपने भाई राम के समान ना तो लबे तकड़े थे, और ना ही बलिष्ठ ,
सारी टोली सर्वथा मोन चल रही थी ,
शाम को ऋषियों की टोली बहुत लंबे समय तक चलने के बाद रात्रि के विश्राम के लिए रुकी , थके हारे अपनी उम्र के हिसाब से विश्वामित्र राम से बोले , वत्स , सन्यासी लोग रथो में यात्रा नहीं करते , मेने महाराज के मर्यादा के लिए नगर तक रथ की सवारी कर ली , और पुत्र हमें आगे से बहुत घने जंगलो में से भी जाना होगा , जिसमे भविष्य में हमारा निश्चित उद्देश्य भी छिपा हुआ है।
एक चेले में राम और लक्ष्मण के बैठने के लिए आसान बिछा दिए।
बेठो पुत्र , गुरु ने कहा , विश्वामित्र को रस्ते के सफर से पहली बार किसी से मोह भी हुआ था , वो तो लक्ष्मण की चंचलता , जिसकी वजह से हमेशा गंभीर मुद्रा में रहने में वाले विश्वामित्र में कभी मंद मंद मुस्कुराते कभी ठहाके लगा के हँसते , लक्ष्मण की वजह से किसी को रस्ते के लंबे सफर का पता तक नहीं चला ,
वहां कुछ लक्ष्मण को लेकर ज़्यादा ही स्नेहशील होते हुए विश्वामित्र ने पूछा , तुम थक तो नहीं गए पुत्र।
लक्ष्मण अब भी स्फूर्तिपूर्ण दिख रहे थे , चंचल मुद्रा सहास में बोले , मेरी माँ कहती है , सौमित्र को थकने का अधिकार नहीं है , सुमित्रा के ४ पुत्रो ने पाप रूपी अंधकार को जला डालने के लिए जन्म लिया है , उन्हें थकना नहीं चाहिए।
गुरु ने कुछ विषमय से लक्ष्मण को देखा , और कहा , ऐसा कहती है देवी सुमित्रा ?
हाँ मुनि श्रेष्ठ। राम बोले , " माता सुमित्रा खुद भी पवित्र अग्नि से कम नहीं है , - तेजस्विनी उग्र तथा , निष्पाप।
ऋषि के चेहरे का उल्लास चेहरे पर फुट पड़ा , फिर तो में सही जगह पहुंचा। मेरे जैसा और कौन भाग्यशालीहोगा , जो राम की कामना लेकर गया और लक्ष्मण को लेकर लौटा , गुरु अपने मन में किसी भाव में रम गए और कुछ क्षणों तक शांत रहे , फिर बोले , वत्स राम और लक्ष्मण , मेने जानबूझकर आप दोनों को पैदल चलाया है , में चाहता हूँ तुम सहज नागरिक बनकर साधारण मनुष्य की पीड़ा को देखकर उसको अनुभव करो , पुत्र खुद जिसने कभी पीड़ा नहीं देखि , वो कभी दुसरो की पीड़ा को भी समझ नहीं पाता , सुख एक बहुत बड़ा अभिशाप है जो व्यक्ति को दुसरो की व्यथा की और से अँधा कर देता है , इसलिए यह राजा , सम्राट , राष्ट्र के पति , सभी मंत्री , अधिकारी विलास की चर्बी आँखों पर चढ़ाये आश्वश्त बैठे है राम , में तुम्हे अयोध्या के विलासी वातावरण से दूर ले आया हूँ , राजकुमारों के जीवन से हटकर साधारण व्यक्ति के अस्तित्व के मानापमान के , न्याय न्याय के संघर्ष को देख सको।
राम के अधरों पर वक्र सी मुस्कान उदित हुई , और क्षण भर में ही विलीन हो गयी , वे गंभीर थे , " एक उपेक्षित माता के सबकी आँखों में खटकने वाले पुत्र के विषय में यह मान लेना उचित नहीं है की वह दुःख से अनभिज्ञ होगा , दुसरो की करुणा से अनभिज्ञ होगा , दुसरो की करुणा से शून्य होगा , न्याय न्याय के संघर्ष से वह परिचित नहीं होगा।
राम। गुरुवर ने उन्हें आवाज दी।
हाँ ऋषिवर , राम फिर से स्वप्नलोक से विश्वामित्र के पास पहुँच चुके थे , आज जैसा आपने देखा , पिता का व्यव्हार सदा मेरे प्रति ऐसा नहीं था , ठीक है घनाभाव का कष्ठ मुझे और माता कौशल्या को नहीं होता , पर यह कष्ठ तो रखेलों और दासियो को भी नहीं होता , में धनवान पिता के अनचाही संतान के रूप में पला हूँ , मेने जब से होंश सम्भला है , मेने यही देखा है , मेरी माँ साम्राज्ञी होते हुए भी पीड़ित दलित का जीवन जीती रही है , केकयी की दासिया मेरी माँ से अधिक महत्वपूर्ण मानी जाती रही है , . में केवल आपको इतना ही स्पष्ठ करना चाहता हूँ , की अपने सेशव से उन्ही आरंभिक जीवन में माता कौशल्या ने अपने उत्तराधिकार और अपने संस्कारो में मुझे दुसरो के प्रति करुणा दी है , और माँ सुमित्रा ने मुझे न्याय के लिए सम्मान के लिए , अधिकारों के लिए संघर्ष करने की प्रेरणा दी है , इन दोनों माताओ ने मेरे सम्मुख यह स्पष्ठ कर दिया है , जो स्वम दुर्बल है , सरंक्षणहीन है , अन्य लोगो के लिए उसके प्रति अन्याय , अधर्म। तथा अपमान का व्यव्हार कितना सहज हो जाता है।
सुना तो मेने भी कुछ ऐसा ही था, राम। गुरु बोले , और कदाचित इसीलिए में तुम्हे लेने अयोध्या आया था , की सुख सुविधा में अँधा सम्राट किसी की पीड़ा नहीं समझता , , तो उसका उपेक्षित राजकुमार उसको अवश्य समझता होगा , किन्तु सम्राट का तुम्हारे प्रति मोह देखकर लगा की मेरी धारणा भरम मात्र थी ,
" आपकी धारणा भरम मात्र नहीं थी , लक्ष्मण कुछ तीखे शब्दो में बोले , " भरम तो सम्राट का भैया के प्रति वह नाटक था , ऐसे बहुत सारे नाटक हमारे पिता करते रहते है , हमारे पिता बहरूपिया ऋषिवर।
तुम कटु सत्य बोलने में बहुत पटु हो लक्ष्मण , विश्वामित्र हंस पड़े , पर वह नाटक कैसे था ??
वह नाटक नहीं था , पर आश्रर्यजनक अवश्य था ऋषिवर। ...
कमशः आगे का भाग कल
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