राम विस्वामित्र से कहते है की पिता का आज नाटक तो नहीं , पर जो भी था आशार्यजनक अवश्य था , ऋषिवर सम्राट बहुत बदल गए है , अब ऐसा लगता है , की वह निरन्तर बदल रहे है , शम्बर के बाद युद्ध में जब पिताजी घायल होकर लोटे थे , तभी से उनके व्यव्हार में परिवर्तन आना शुरू हो गया। मुझे तब कुछ राजकीय अधिकार दिए गए थे , और आज तक पिता किसी न किसी रूप में मुझे उपयोगी पाते है। यही कारण है की मुझपर उनका मोह निरन्तर बढ़ता जा रहा है , माता कौशल्या और सुमित्रा की तुलना की अपेक्षा केकयी पर उनका स्नेह आज भी ज़्यादा है , इसमें कोई संदेह नहीं , किन्तु भरत के प्रति वरीयता उन्होंने शायद ही कभी दिखाई हो। मुझे लगता है की भारत के प्रति उनका स्नेह केकई के दबाव के कारण ही ज़्यादा है , अपने मन की बाध्यता के कारण कम वैसे भी भरत अधिकांशतः अपने ननिहाल में ही ज़्यादा रहते है , उन पर पिता की अपेक्षा नाना - मामा का प्रभाव अधिक है , पिता उनके प्रति स्नेह विकसित नहीं कर पाए , इसके लिए पिता को दोष नहीं देना चाहिए।
राम मुस्कुराये , यह मेरे तीनो छोटे भाइ मुझसे इतने अधिक छोटे है , की क्रमश बल तथा बुद्धि दुर्बल होते जा रहे पिता को मेरी ही आवश्यकता दिखाई पड़ती है। मुझे लगता है जैसे जैसे उनका शरीर असमर्थ होता जा रहा है , मुझे लेकर उनकी ममता बढ़ती ही जा रही है. .
गुरुदेव। लक्ष्मण उत्तेजित होकर बोले , " में बता नहीं सकता , हमारी प्रजा को भैया राम से कितना प्रेम है , प्रजाजन मानते है , दुःख सुख विपत्तियों में केवल राम ही उनके साथ है , बाहरी आक्रमणों से भी केवल भैया ही उन्हें बचाते है , सम्राट अब युद्ध यात्रा नहीं करते , वर -यात्रा चाहे तो वह आज भी कर ले , न्याय स्थापना भी राजकुमार राम ही करते है , सम्राट को तो अन्तः पुर के झगड़ो से ही अबकाश नहीं , मेरी माता कहती है की १०-११ सालो से कोसल का राज तो राम ही चला रहे है , पर उनका अभीतक राज्यभिषेक नहीं हुआ , होगा भी या नहीं कहा नहीं जा सकता , भैया दुसरो के अधिकारों की रक्षा करते हुए भी अपने लिए कुछ नहीं कर रहे , वे कहते है -------
लक्ष्मण। राम ने टोका
ठहरो राम। गुरु बोले , हाँ लक्ष्मण बताओ , तुम्हारे भैया क्या कहते है।
लक्ष्मण राम की और चंचलता से मुस्कुराये , " भैया कहते है की दूसरे के अधिकारों की रक्षा करना न्याय है , और अपने अधिकारों के लिए लड़ना स्वार्थ है , पर मेरी माता कहती है की राम की अपनी और से उदासीनता उन्हें पसंद नहीं है ,
लक्ष्मण। राम ने प्रेम मिश्रित भाव में उन्हें डांटा .
लक्ष्मण ने तिरछी दृष्टि से राम की और देखा और मुस्कुराये , पुनः बोले
गुरुदेव। मेरी माता कहती है की भैया ने अगर अपने लिए कुछ ना किया तो मुझे उन्हें उनका अधिकार दिखाना है , वे कहती है राम का पक्ष न्याय है , और राम से उदासीन होना न्याय से उदासीन होना है , वे चाहती है की में बहुत वीर बनूँ, और राम के मार्ग के प्रत्येक कटँक को जड़ समेत उखाड़ फेंकू।
एक अन्य शिष्य ने पुकारा , गुरुदेव भोजन तयार है ,
आओ वत्स। पहले भोजन कर ले
वत्स वसिष्ठ ने तुम्हारे पिता कीइच्छा के विरुद्ध तुम्हे यहाँ भेजा है , यह उनकी बुद्धिमता है , विश्वामित्र के स्वर कोमल और स्नेहचिंतित थे , क्यू की वह अनेक बातें ऐसी समझते है , जो दसरथ नहीं समझते।
राम के सरल ईमानदार चेहरे पर अशांति की कुछ रेखाएं उभरी।
पिता की निंदा नहीं सुन सकते पुत्र ? विश्वामित्र हंस पड़े।
गुरुदेव अन्यथा ना माने। राम के शब्द सधे हुए थे , पिताजी ने आदेश दिया था , की हम आपको गुरु और पिता दोनों मानकर आपकी आज्ञा का पालन करें- वह हम करेंगे। किन्तु हम वह बूढ़े पिता की आँखों में पीड़ा के आंसू और आपके प्रति अव्यक्त भय की छाप ना भुला पाउ, तो क्या आप मुझे दोषी कहंगे।
विश्वामित्र हंस पड़े। तुम ठीक कहते हो राम। मुझे न केवल यह ध्यान रखना होगा , की अपने पिता के व्यव्हार और व्यक्तित्व के अनेक दोषो को जानते हुए भी तुम्हारे मन में उनके लिए आदर , स्नेह , और सम्मान की भावना है , वरन यह भी याद रखना होगा , तुम स्वतंत्र चिंतन करने वाले निर्भीक और तेजस्वी वीर भी हो। निश्चित रूप से मेने तुम्हारे पिता का मन दुखाया है , किन्तु राम जीवन में अनेक बार धर्म की रक्षा के लिए कटु होकर अन्य का मन दुखाना पड़ता है।
राम मेने अपनी बाजी तुम पर लगाई है पुत्र , इसलिए कुछ बातें तुमसे स्पष्ठ कर देना चाहता हूँ , तुम मेरी अपेक्षाओं पर खरे उतरे तो में तुम्हे सिर्द्धाश्रम ले जाऊँगा , और ऐसा नहीं हुआ , तो तुम्हे और लक्ष्मण को यही से लोटा दूंगा।
राम चकित रह गए , चलने से पहले तो उन्हें कुछ और बताया गया था , पिता का संकोच , गुरु की कटुता , कितना आग्रह और कितने आश्वाशन , इतना प्रयास और राजदरबार में इतना उधम , और अब कह रहे है की उन्हें यहीं से लोटा देंगे , यह कैसा कौतुक है।
लक्ष्मण की आँखों में एक आशंका समां गयी , उन्हें हाथो से जैसे आकर्षक वस्तु छिनती दिखाई दी , विश्वामित्र उन्हें अयोध्या वापस भेज देंगे , अयोध्या तो उन्होंने पचासों बार देखी है। अब वन , उपवन , नदी , पर्वत यह सब कब देखेंगे , यह तो भैया राम पर ही निर्भर था।
में समझा नहीं गुरुवर राम बोले।
विस्तार से समझाता हूँ पुत्र विश्वामित्र प्रवचन की मुद्रा में बेथ गए
तुमने अपने पिता की निंदा के सम्बन्ध में जो कहा है , वो तुम्हारे तेज व्यक्तित्व में तेज का आभास मिलता है , जो मेरी अपेक्षाओं के अनुकूल है , पर जो कुछ मेने कहा , वो तुम्हारे पिता की निंदा नहीं थी , वह उनके चरित्र का विश्लेषण मात्र था , पुत्र जब हमारा चिंतन व्रद्ध और सिमित हो जाता है तो हमारे चिंतन प्रणाली और विचार एकदम गूढ़ हो जाते है , में उस वातावरण का जीव नहीं हूँ , जहाँ तुम पले बढे हो , यदि मेरी बातो को रूढ़ दृष्टि से देखोगे , तो कई बार में आपको आपका निंदक और विरोधी प्रतीत होऊंगा , किन्तु अगर उदार होकर व्यापक रूप से अगर सोच पाए , तो में निश्चित रूप से तुम्हारा हितकर ही नजर आऊंगा।
तुम मेरी बात समझ रहे हो न राम। .
आपका कथन सर्वथा सत्य है ऋषिवर , राम का तेजस्वी और सरल मुख नए ज्ञान और विचार पाने को उत्सुक और अत्यंत उदार हो गया
मेरा और वसिष्ठ का मतान्तर बहुत पुराना है राम , तुमने सुना भी होगा , वसिष्ठ की अपनी निष्ठा है , मुझे उसकी ईमानदारी पर पूरा भरोषा है , किन्तु फिर भी में उनकी कई चीज़ों पर उनसे सहमत नहीं पाता , यह सब बातें बाद की है वत्स , मेने आरम्भ में ही कह दिया था , की बसिष्ठ ने तुम्हे मेरे साथ इसलिए भेज दिया , की कई बातें जो तुम्हारे पिता नहीं जानते , वह वसिष्ठ अवश्य जानते है , वो यह जानते है , तुम नहीं आते , तो यह काम में किसी दूसरे से करवा लेता , पुत्र ऋषि एक अनाशक्त बुद्धिजीवी है , वो अपने लिए कुछ नहीं करता , वह मानव समाज की दृस्टि से सोचता है इसलिए वह कभी भी साधन जूटा सकता है , तुम ना आते तो में अन्य किसी आर्यराजकुमार से यह कार्य करवाता , किन्तु ऐसी स्तिथि में दसरथ का अहित भी हो सकता था , इसे वसिष्ठ समझते है।
आप समर्थ है गुरुदेव्। राम ने सर झुकाकर जवाब दिया।
पुत्र अब में तुम्हे अपनी बात कहता हूँ , विश्वामित्र कुछ हल्के बोले , जब बुद्धि विलासी हो जाती है , तो सत्ता कोमल और भीरु हो जाती है , इससे अन्याय को बल मिलता है , वत्स आज संसार में ऐसा ही समय आ गया है। देवशक्ति अपने विलाश में नष्ठ हो गयी है , आर्यो में आपसी मतभेद है , ऋषिमुनि अपना पेट पालने में व्यस्त है , अतः एक अन्यायी और अत्याचारी शक्ति संसार पर छायी जा रही है ,
कौन है वह , राम संघर्ष के लिए पूर्णतः उद्धत थे , मुझे बताए, ताड़का , मारीच ? या सुबाहु ??
विश्वामित्र हंस पड़े, तुम्हारा उत्साह मुझे आश्वश्त करता है पुत्र , किन्तु यह तो केवल शाखाएं मात्र है , असली जड़ तो " रावण " है। .
आगे का भाग कल
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