
"सुभाष...हमारी मंजिल एक ही है...इस राष्ट्र की आजादी..और ये अहिंसा से ही प्राप्त हो सकती है...इस गरमागरमी से..लोगों का खून बहाने से अंग्रेज सरकार और दमनकारी हो जायेगी..हमारे लोगों पर अत्याचार और बढ़ जाएंगे" गाँधी ने अपनी चिंता जाहिर की,सुभाष उनकी बात सुनकर मुस्कुराए और बोले "अपने पास सदैव गीता रखने वाले के ये बोल मेरी समझ से परे हैं... विनम्रता उसे शोभा देती है जो शक्ति संपन्न हो.. शक्तिहीन की विनम्रता कायरता कहलाती है"
गाँधी थोड़ा रोष में आकर बोले "अंग्रेजों की गरजती बंदूकों के सामने तुम कितने हिंदुस्तानी सीने लाओगे..हिंसा के प्रत्युत्तर में हिंसा ही प्राप्त होगी...अहिंसात्मक विरोध से एक दिन उन्हें हमारे देश को आजादी देने को विवश होना ही पड़ेगा"
सुभाष समझ गए कि गाँधी काँग्रेस के अध्यक्ष पद की हार को अपनी नीतियों की हार के तौर पे देख रहे हैं इसलिए शान्त स्वर में बोले "बंदूकों का सामना लाठी से संभव है ये मुझे नहीं पता था... पीठ दिखाकर बैठ जाने की जगह मैं हिंदुस्तानियों के वो सीने सामने लाना चाहता हूँ जिनकी पीठ पे जापानी तोपें होंगी" जवाहर बीच में कुछ बोलने ही जा रहे थे मगर उन्हें चुप कराते हुए आगे दृढ़ स्वर में बोले "हमें अपना गेंहूँ और अपना आटा चाहिए...हम अपनी रोटी स्वयं बना के खाएंगे..हम अपने खेत उनसे गर्व के साथ छीनेंगे..भले ही इसके लिए हमें अपनी भूमि रक्त से ही क्यों न सींचनी पड़े... अहिंसा के भिक्षा पात्र लिए हाथों में स्वतंत्रता के कतरे मिलते हैं पूर्ण स्वराज्य क्रांति की मशाल लिए हाथों को प्राप्त होता है"
गाँधी ने जवाहर की तरफ देखा और अत्यन्त भावनात्मक होते हुए कहा "सम्भवतः अब इस कांग्रेस को मेरी आवश्यकता नहीं है.. उग्र और उद्दंड लोगों के द्वारा राष्ट्रिय आंदोलन का हरण मुझसे न देखा जायेगा"
सुभाष ने गाँधी का ये रूप देखा,तत्काल उस 'विद्रोही अध्यक्ष' ने निर्णय लिया और अपना त्यागपत्र देते हुए कहा "नहीं ये आंदोलन और ये कांग्रेस आपको ही समर्पित करता हूँ...अब ये आने वाला समय ही बताएगा कि भारतवर्ष को महात्मा के सुभाषित चाहिएं या सुभाष।"
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